सूत्र :अलातचक्र-दर्शनवत्तदुपलब्धिराशुसंचारात् II3/2/62
सूत्र संख्या :62
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे शीघ्रगामी अलातचक (आतिशबाजी की चर्खी) यद्यपि कमपूर्वक चलता हैं, तथापि शीघ्र गति होने के कारण उसका कम मालूम नहीं होता, किन्तु वह एक साथ ही चलता हुआ सा मालूम होता है। ऐसे ही शीघ्रगामी मन यद्यपि एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार में और एक काम को छोड़कर दूसरे काम में जाता हैं, तथापि उसकी शीघ्र गति होने के कारण वह कम नहीं दिखता, किन्तु वे काम एक साथ होते हुए मालूम होते हैं।
व्याख्या :
इस विषय में दूसरा दृष्टांत वर्ण, पद और वाक्यों का भी है। पहले कमपूर्वक वर्णों का उच्चारण होता है, जिससे सार्थक पद बनते हैं फिर क्रमशः पदों के मिलाने से वाक्य बनता है जिससे श्रोता को उसके अर्थ का ज्ञान होता है। यद्यपि ये सब काम क्रमपूर्वक होते हैं तथापि शीघ्रता के कारण कोई इनके क्रम पर ध्यान नहीं देता। अतः सब काम क्रमपूर्वक होने से एक साथ नहीं हो सकते। अब मन का अणु होना सिद्ध करते हैं: