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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :साध्यसमत्वादहेतुः II3/2/3
सूत्र संख्या :3

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : वादी ने जो प्रत्यभिज्ञा को बुद्धि का धर्म मानकर हेतु दिया है, वह साध्य होने से ही ठीक नहीं, क्योंकि जैसे बुद्वि का नित्य होना साध्य है, वैसे ही प्रत्यभिज्ञा का बुद्धि धर्म होना भी साध्य है। एक साध्य की सिद्धि में दूसरे साध्य का हेतु देना साध्यसम-हेत्वाभास है। वादी को चाहिए था कि पहले प्रत्यभिज्ञा को बुद्धि का धर्म सिद्ध कर लेता, तब उसको हेतु में रखता। अस्तु, प्रत्यभिज्ञा बुद्धि का धर्म नहीं है, किन्तु वह चेतन जीवात्मा का धर्म है, जीवात्मा ही किसी ज्ञात विषय का बुद्धि के द्वारा स्मरण करता है।

व्याख्या :
प्रश्न - ज्ञान जीवात्मा का धर्म नहीं, किन्तु अन्तःकरण का धर्म है। उत्तर - ज्ञान अन्तःकरण का धर्म नहीं, किन्तु जीवात्मा का धर्म है, अन्तःकरण तो केवल साधन मात्र है। यदि ज्ञान अन्तःकरण का धर्म माना जावे तो केतन का क्या धर्म होगा ? चेतना, ज्ञान, स्मृति ये सब पर्यायवाचक शब्द हैं, इनका कारण केवल जीवात्मा है, हां मन, बुद्धि आदि उसके उपकरण हो सकते है। प्रश्न - यदि यह माना जावे कि बुद्धि जानती हैं तो इसमें क्या दोष है ? उत्तर - बुद्धि और ज्ञान दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं और ये गुण हैं न कि द्रव्य। गुण सदा द्रव्य में रहता है, गुण में गुण नहीं रहता। इन में द्रव्य में केवल जीवात्मा है, इसलिए ये सब उसी के गुण हैं, जिस प्रकार आंख से जीवात्मा देखता है, कान से सुनता है, इसी प्रकार मन से मनन करता और बुद्धि से जानता है। यदि आंख और कान द्रव्य और श्रोता नहीं तो मन मन्ता और बुद्धि ज्ञाता कैसे हो सकती है ? इसलिए बुद्धि जानती है आत्मा जानती है, यही सिद्धान्त है। अतएव वादी ने बुद्धि के नित्य होने में जो हेतु दिया था, वह साध्यसम होने से जब अहेंतु ठहरा तब बुद्धि का अनित्य होना सिद्ध है। अब जो लोग बुद्धि को स्थिर मानकर उसकी वृत्तियों को चल मानते हैं और वृत्ति और वृत्तिमान् में भेद करते, उनका खण्डन करते हैं:-