सूत्र :न गत्यभा-वात् II3/2/8
सूत्र संख्या :8
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि मन को सारे देह में व्यापक माना जावे तो उसमें गति का होना अर्थात् एक इन्द्रिय को छोड़कर दूसरे में जाना नहीं हो सकेगा, क्योंकि विभु पदार्थ सब में एक रस व्यापक होता है, परन्तु मन का इन्द्रियों से संयोग होता है, इसलिए विभु मानना ठीक नहीं। अब वादी वृत्ति का एकत्व स्थापन करता है:-