सूत्र :न पार्थिवाप्ययोः प्रत्यक्षत्वात् II3/1/69
सूत्र संख्या :69
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पुथिव्यादि भूतों में एक-एक गुण नहीं है, क्योंकि यदि एक ही गुण होता तो इनमें उसी का प्रत्यक्ष होता न कि अन्य गुण का। यथा पृथ्वी में गन्ध का और जल में रस का प्रत्यक्ष होता, अग्नि के गुण या वायु के गुण स्पर्श का इनमें प्रत्यक्ष न होना चाहिए था। क्योंकि जब कारण रूप पृथ्वी और जल में रूप नहीं, तो कार्य रूप में कहां से आ गया। कारण के विरूद्ध कार्य में कोई धर्म नहीं आ सकता। अतएव पार्थिव पदार्थों में गन्ध के अतिरिक्त रस रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष होने से एक भूतों में अनेक गुणों का होना सिद्ध है। और यह जो हेतु दिया गया है कि अन्य भूतों के संसर्ग से उनके गुणों का प्रत्यक्ष होता है, ठीक नहीं क्याकेकि यदि वायु के संसर्ग से आग्नेय पदार्थों में स्पर्श की उपलब्धि होती है तो अग्नि से संसर्ग से वासव्य पदार्थों के रूप की उपलब्धि क्यों नहीं होती। क्योंकि संसर्ग दोनों का समान है। इसके अतिरिक्त रस पार्थिव और आप्य दोनों प्रकार के पदार्थों में पाया जाता है, परन्तु पार्थिव द्रव्यों में 6 प्रकार का रस होता है, आप्त में केवल एक ही प्रकार मधुर रस होता है। इसी प्रकार पार्थिव द्रव्यों में हरा, पीला, काला आदि अनेक प्रकार का रूप होता है, जल में केवल एक ही प्रकार का रूप देखा जाता है। इसलिए यह कथन कि भूतों के परस्पर संसर्ग से एक दूसरे के गुण उनमें पाए जाते हैं। ठीक नहीं। अब इसका उत्तर देते हैं-