सूत्र :विषयत्वाव्यतिरेकादेकत्वम् II3/1/61
सूत्र संख्या :61
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि भिन्न-भिन्न प्रकार केविषयों को एक जाति मानकर पांच विषय मानते हो तो पाँच विषयों की कल्पना क्यों की जाती है, एक ही विषय क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि विषय का जो विषयत्व धर्म है, वह सब विषयों में समान है। यदि गन्धत्व के सामान्य से सुगन्ध और दुर्गन्ध एक है तो विषयत्व के सामान्य से गन्ध, रस शब्दादि भी एक ही हैं। जब विषय एक हैं, तो फिर उसका ग्राहक इन्द्रिय भी एक ही होना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं-