DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :विप्रतिषेधाच्च न त्वगेका II3/1/57
सूत्र संख्या :57

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : विप्रतिषेय से भी त्वचा ही एक इन्द्रिय नहीं है।

व्याख्या :
प्रश्न- विप्रतिषेय किसे कहते हैं? उत्तर- जहां दो बराबर शक्तियां परस्पर विरोध करती हैं। प्रश्न- यहां पर परस्पर विरोध क्या है? उत्तर- यहां विरोध यह है कि आंख से दूरस्थ पदार्थों की उपलब्धि होती है, परन्तु त्वचा से दूर के पदार्थों का स्पर्श नहीं होता। यदि त्वचा एक ही इन्द्रिय होती तो उससे दूर वस्तु का स्पर्श और रूप दोनों को ग्रहण होता या संयुक्त वस्तु के स्पर्श के समान उसको रूप ज्ञान भी होता, परन्तु रूप का ज्ञान सदा दूर से होता है और स्पर्श का ज्ञान संयोग से। इनमें परस्पर विरोध होने से सिद्ध है कि इन दोनों के इन्द्रिय अलग-अलग हैं। प्रश्न-यदि ऐसा माना जाये कि त्वचा में दो दो गुण हैं (1) संयुक्त वस्तु के स्पर्श को (2) दूरस्थ वस्तु के रूप को ग्रहण करना, तो क्या हानि है? उत्तर-यह ठीक नहीं क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ के संयोग बिना किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता तो क्या दूरस्थ पदार्थ कें रूप को ग्रहण करते समय त्वचा शरीर को छोड़कर उसके पास चली जाती है कदापि नहीं। नेत्ररश्मि के द्वारा ही दूरस्थ वस्तु के रूप का ग्रहण होता हैं अतएव इन्द्रिय अनेक हैं। अब इस पर हेतु और देते हैं-

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