सूत्र :गन्ध-त्वाद्यव्यतिरेकाद्गन्धादीनामप्रतिषेधः II3/1/60
सूत्र संख्या :60
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : गन्धादि के भेदों को अलग-अलग गिनकर विषयों का बहुत्व मानना और उससे इन्द्रिय बहुत्व की कल्पना ठीक नहीं। गन्ध का जो गन्धत्व धर्म है, वह सब गन्धों में सामान्य रूप से विद्यमान है, इसी प्रकार रूपादि के विशेष धर्म अपने-अपने सामान्य धर्म में आ जाते हैं। इसलिए वे सब भेद एक ही इन्द्रिय से ग्रहण किए जाते हैं। जैसे लाल, पीला, काला आदि रूप के भेद एक ही आंख से ग्रहण किए जाते हैं। इनके लिए भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसे ही शीतोष्णादि रूपर्श त्वगिन्द्रिय से ग्रहण होतें हैं अर्थात् जिस त्वचा से शीत स्पश ग्रहण किया जाता है, उसी से उष्णस्पर्श भ। अतएव इन्द्रिय पांच ही हैं। अब वादी फिर आक्षेप करता हैं-