सूत्र :आहतत्वादहेतु II3/1/55
सूत्र संख्या :55
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वादी ने प्रथम तो यह कहा था कि शरीर का कोई भाग पृथक नहीं अर्थात् सब शरीर में व्यापक होने से त्वचा ही एक इन्द्रिय है। अब कहता है कि उसके एक विशेष भाग से धूमादिवत् रूपादि की उपलब्धि होती है। विशेष भागों से विशेष विषयों की उपलब्धि होना और उनके न होने से न होना यह बात विषय ग्राहक इन्द्रियों का अनेक होना सिद्ध करती है, जिससे पहला पक्ष खण्डित हो जाता है। इन्द्रियों स्थान में व्यापक होने से जो त्वचा को एक इन्द्रिय माना है यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि सबसे फली हुई होने से ही त्वचा सबका काम कर सकती है तो फिर पृथ्वीयादि भूत भी जो सब जगह फैले हुए हैं और सब इन्द्रियों का आधार भी हैं, इनको ही एक इन्द्रिय क्यों न मान लिया जाये। ऐसा मानना प्रमाण और युक्ति के विरूद्ध है। इस पर एक हेतु और देते हैं।