सूत्र :न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् II2/2/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : दूसरे अध्याय का दूसरा आन्हिक
प्रमाणों की सामान्य परीक्षा के अनन्तर अब विशेष परीक्षा आरम्भ करते हैं, प्रथम वादी आक्षेप करता है कि चार ही प्रमाण क्यों माने जायें अधिक क्यों नहीं ?
चार ही प्रमाण मानना ठीक नहीं, क्योंकि ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये चार प्रमाण और भी हैं।
व्याख्या :
श्न -ऐतिह्य किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन बातों की परम्परा से सुनते चले आये हैं, या इतिहास ग्रन्थों में जिनका लेख मिला है कि अमुक पुरुष हुआ और उसने ऐसा किया, इत्यादि पुरावुतों की इतिहास या ऐतिह्म कहते हैं।
प्रश्न - अर्थापत्ति का क्या लक्षण हैं ?
उत्तर - एक बात के कहने से जो दूसरी बात अर्थ से स्ंवय जानी जाती है, उसको अर्थापत्ति कहते हैं, जैसे कोई सत्य भाषण विश्वास का कारण हैं, इस एक बात के कहने से दूसरी बात कि मिथ्या भाषण अविश्वास का कारण है, स्वंयमेव सिद्ध हो गई।
प्रश्न -सम्भव किसे कहते है ?
उत्तर - जहां एक वस्तु बिना दूसरी वस्तु के न ठहर सके, वहां एक के ग्रहण से दूसरे का ज्ञान होना सम्भव कहलाता हैं, जैसे श्रद्धा से प्रीति और ज्ञान से मुक्ति का होना सम्भव है।
प्रश्न - अभाव का लक्षण क्या है ?
उत्तर - जहां कारण न हो, वहां कार्य भी न होगा, इसको अभाव कहते हैं, जैसे मोह से अभाव में शोक और लोभ के अभाव में आदर भी न होगा। ऐतिह्यादि इन चार प्रमाणों के सिद्ध होने से आठ प्रमाण होते हैं, इसलिए प्रत्यक्षादि केवल चार ही प्रमाणों का मानना ठीक नहीं। सूत्रकार इसका उत्तर देते हैं: