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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :शीघ्रतर-गमनोपदेशवदभ्यासान्नाविशेषः II2/1/66
सूत्र संख्या :66

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यद्यपि शब्दों की पुनः पुनः आवृत्ति दोनों में बराबर है, तथापि अनुवाद और पुनरूक्ति में बहुत अन्तर है, क्योंकि शब्द या वाक्य किसी अर्थ को प्रकाश करने के लिए कहा जाता है सो अनुवाद में तो उसके कथन की सार्थकता है, पुनरूक्ति में नहीं। जैसे कोई कहता है कि ‘‘जाओ जाओ’’ यहां दो बार कहने का स्पष्ट अर्थ यह है कि ‘‘शीघ्र जाओ’’ इसी प्रकार यदि किसी पुस्तक में किसी विशेष अर्थ की प्रतिपत्ति के लिए कोई शब्द या वाक्य दो बार या कई बार उच्चारण किया गया है तो वह विशेष अर्थ का प्रकाशक होने से पुनरूक्त नहीं कहलायेगा और प्रमाण माना जाएगा। हां जिस पुस्तक में निरर्थक एक ही बात बार-बार कही गई हो और उससे किसी विशेष अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती वह पुनरूक्त कहलायेगी।

व्याख्या :
प्रश्न- कई मन्त्र ऐसे हैं कि जो चारों वेदों में बराबर आते हैं और कई ऐसे भी हैं कि जो एक ही वेद में कर्द बार आते हैं इसलिए पुनरूक्ति दोष होने से वेद अप्रमाण है। उत्तर- प्रथम तो चारों वेदों के प्रकरणा और उद्देश्य अलग- अलग हैं, अपने-अपने प्रकरण और उद्देश्य के अनुसार वे मंत्र अपने-अपने अर्थ और अभिधेय को प्रकाश करते हैं दूसरे वेदों में स्वरभेद भी अर्थभेद का कारण है, एक ही शब्द या पद स्वरभेद के कारण भिन्न-भिन्न अर्थों का वावाचक हो जाता है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ‘इन्द्रशत्रु शब्द का उदाहरण दिया हैं, जो केवल स्वरभेद होने से भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रकाश करता है। इसलिए वेदों में पुनरूक्ति की सम्भावना नहीं हो सकती। पुनः इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं-

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