सूत्र :शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावा-दनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः II2/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रमाण चार ही हैं क्योंकि ऐतिह्य शब्दप्रमाण के अन्तर्गत है और अर्थापत्ति सम्भव और अभाव से ये तीनों अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत हैं।
व्याख्या :
प्रश्न - शब्द प्रमाण मे ऐतिह्य का सन्निवेश कैसे करते हैं ?
उत्तर - जैसे आप्तोपदिष्ट शब्द प्रमाण हैं, वैसे ही आप्त का लिखा हुआ इतिहास भी प्रमाण माना जायेगा, अनाप्त का नहीं, जो कि आप्तोपदेशरूप लक्षण दोनों में समान हैं, इसलिए ये दोनों एक ही हैं ।
प्रश्न - अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये तीनों अनुमान में किस तरह समाते हैं ?
उत्तर - किसी लिंग के प्रत्यक्ष होने के पश्चात् उसके द्वारा अलिंगी का ज्ञान होना अनुमान कहलाता हैं सो अर्थापत्ति में भी इसी अनुमान से काम लिया जाता है अर्थात् जो सत्य नहीं बोलता, उसके विषय में यह अनुमान किया जायेगा कि वह अवश्य मिथ्या बोलता होगा। दूसरा सम्भव भी अनुमान के अन्तर्गत हैं, क्योंकि एक वस्तु के ग्रहण से दूसरी का अनुमान स्पष्ट है, श्रद्धा को देखकर प्रीति और ज्ञान को देखकर मुक्ति का अनुमान किया जायेगा। तीसरा अभाव भी अनुमानसे विलक्षण नहीं, क्योंकि मोह के अभाव में शोक और लोभ के अभाव में निन्दा की सम्भावना भी नहीं हो सकती। इसलिए सब प्रमाण चारों प्रमाणों के अन्तर्गत होने से अधिक प्रमाण मानने की कोई आवश्यकता नहीं।
प्रश्न - क्या अनुमान और अर्थापत्ति आदि में कोई भेद नहीं ?
उत्तर - अनुमान कई प्रकार का होता है, जो व्याप्ति ज्ञान सम्बन्ध रखता हैं, अर्थापत्ति आदि भी बिना सम्बन्ध के नहीं हो सकती। इसलिए ये सब अनुमान के भेदों में आ जाती हैं, अनुमान के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण नहीं हो सकती। अब वादी अर्थापत्ति पर आक्षेप करता हैं: