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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

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सूत्र :मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्य- माप्तप्रामाण्यात् II2/1/67
सूत्र संख्या :67

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : मन्त्र जो वेद संहिता है, वह आयुर्वेंद अर्थात् वैद्यक शास्त्र के तल्यप्रमाण है जिस प्रकार औषधियों के प्रयोग में उक्त तीनों दोष मालूम इस सूत्र का अर्थ जो श्री स्वामी दर्शनान्द सरस्वती जी ने किया, हम उससे सहमत नहीं है। कारण यह है कि सुत्र में शब्द प्रमाण तो जिसमें मुख्य आप्तोक्त होने से सब भाष्यकारों ने वेद का ही ग्रहण किया है, साध्य है ‘आप्तप्रामाण्यात्’ आप्तोक्त होना यह हेतु है, जिसको अपने उत्तर में स्वामी जी भी स्वीकार करते हैं, ‘मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत्’ मंत्र और आयुर्वेद इन तीनों के प्रमाण के समान ये दो दृष्टान्त हैं अर्थात् जिस प्रकार मन्त्र या आयुर्वेद का प्रमाण सिद्ध किया है उसी प्रकार शब्द का भी, जिसको ‘तद्’ शब्द में परामर्श किया है और जिसमें वेद मुख्य हैं, प्रमाण मानना चाहिए। स्वामी जी मन्त्र शब्द से वेद का ग्रहण करते हुए उसको साध्य मान कर आयुर्वेद का दृष्टान्त देते हैं, जो कि सर्वथा सूत्र के आशय और भाष्यकारों की सम्मति के विरूद्ध है। क्योंकि जब वेद तो शब्द प्रमाण के अन्तर्गत होने से साध्य था ही और स्वामी जी भी इससे पिछले सूत्रों में उसका साध्य होना स्पष्ट स्वीकार कर चुके हैं, तब उसी साध्य की सिद्धि में उसी का दृष्टान्त देना अपने कंधे पर आप चढ़ना है।

व्याख्या :
इसलिए मन्त्र शब्द का जो यहां पर दृष्टान्त में दिया गया है, वेद संहिता अर्थ करना किसी तरह ठीक नहीं हो सकता। मालूम होता है स्वामी जी ने बिच्छू, सांप और भूतों से घबराकर ऐसा अर्थ किया है, यद्यपी सद्विचार और सदुपयोग से (जो मन्त्र शब्द का वाच्यार्थ है) इनका निराकरण भी हो सकता है, तथापि स्वामी जी को यह अमन्तव्य ही था, तो मन्त्र शब्द के और भी बहुत से अर्थ हो सकते थे, जैसाकि पं0 तुलसीराम जी स्वामी ने अपने न्यायदर्शन के अनुवाद में मन्त्र शब्द का अर्थ जप किया है और जप या अभयास के होते हैं, किन्तु आयुर्वेद को अप्रमाण नहीं कह सकते। जैसे एक वैद्य ने किसी रोगी को कोई औषधि दी और उससे उसका रोग दूर न हुआ तो इससे उस औषधि का प्रभाव नहीं बदल जाता किन्तु दो कारणों का अनुमान किया जाता है। या तो औषधि बनाने वाले ने उसको ठीक रीति पर नहीं बनाया, या चिकित्सक की भूल है, वह उसका अन्यथा प्रयोग करता है। इसी प्रकार वेद का प्रमाण है, जहां कहीं वेद के अर्थ या त्रिया में कुछ सन्देह या भेद सा मालूम पड़ता है, वहां या तो कत्र्ता में कोई दोष है, या उस कर्म में, या उसके साधनों में । प्रश्न- कोई-कोई इस सूत्र में आये मन्त्र शब्द का अर्थ भूत और बिच्छू आदि के झाड़ने का करते हैं, क्या वह ठीक नहीं और तुमने जो मन्त्र का अर्थ ‘वेद’ किया है इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- भूत आदि भोले या डरपोक मनुष्यों की कल्पनाएं है और बिच्छू आदि की चिकित्सा भी केवल शब्द से नहीं हो सकती, प्रायः इसमें छल कियाजाता हैं, इसलिए मन्त्र शब्द से यह तापर्य लेना ठीक नहीं, क्रूोंकि कात्यायन आदि ऋषियों ने नाम वेद का माना है। प्रश्न- वेद जबकि साध्य हैं तब उन्हीं को प्रमाण मानकर हेतु में रखना साध्यसम हेत्वाभास हैं, क्योकि साध्य वस्तु का न तो प्रमाण ही हो सकता है और न उसका दृष्टांत ही दिया जा सकता है। उत्तर- ऋषि ने वेद को हेतु या दृष्टांत में नहीं रखा है, किन्तु आयुर्वेद को दृष्टांत में रख कर साध्य वेद को प्रमाण सिद्ध किया हैं और सर्वज्ञ का उपदेश होना यह हेतु दिया है। प्रश्न- प्रकरण तो शब्द प्रमाण का था, उसमें वेद का प्रसंग क्यो छेड़ दिया? स्मृति रूप फल से कोई इन्कार नहीं कर सकता। तथा पं0 आर्यमुनि जी प्रोफेसर डी0ए0वी0 कालेज लाहौर ने इसी सूत्र में मन्त्र शब्द का अर्थ सत्य विचार का किया है, शुद्ध विचार का फल भी सर्व-सम्मत है। - अनुवादक उत्तर-ऋषि वेद को मन्त्र कहने का आशय भी यही है कि मन्त्र तो आयुर्वेद के समान स्वतः प्रमाण है, जिस प्रकार किसी औषधि के प्रभाव को सिद्ध करने के लिए सिवाय उस औषधि को किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं, इसी प्रकार वेद का प्रप्रमाण तो स्वयंमेव हैं, शेष शब्द मात्र का प्रमाण वक्ता या लेखक की योग्यता पर निर्भर है। यदि वक्ता आप्त हैं, तो उसकी उक्ति प्रमाण होगी और यदि अनाप्त होगा तो अप्रमाण। न्यायदर्शन के दूसरे अध्याय का पहला आन्हिक समाप्त।