DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :अनर्थापत्तावर्थापत्त्यभिमानात् II2/2/4
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : वादी ने जो अर्थापत्ति के प्रमाण होने में दोष दिया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि यह कहना बिल्कुल ठीक है कि कारण के न होने से कार्य नहीं हो सकता। इससे यह अर्थापत्ति होती है कि कारण के होने से कार्य होता हैं। परन्तु न तो कारण के होने पर कार्य की अनुत्पत्ति से कारण की सत्ता में व्यभिचार दोष आता है और न ही बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कभी बिना बादल के वृष्टि हो जाती तो व्यभिचार दोष आ सकता था। क्योंकि प्रतिज्ञा यह थी कि बिना बादल के वर्षा नहीं होतीरू। इससे अर्थापत्ति यह निकाली गई कि बादल से वर्षा होती है। यदि कभी कहीं पर बिना बादल के वर्षा होती तो व्यभिचार कहलाता। क्योंकि कारण की विद्यमानता में भी किसी प्रतिबन्ध के होने से कार्य का न होना सम्भव है। प्रतिवादी का यह आशय नहीं था कि बादल के होने से अवश्य ही वर्षा होती है, किन्तु उसका आशय यह था, जिसको उसने अर्थापत्ति से सिद्ध करना था कि बादल के होने पर वर्षा होती है। इस वास्ते जब तक बिना बादल के वर्षा का होना सिद्ध न हो जाये, तब तक व्यभिचार दोष नहीं आ सकता। वादी ने अनर्थापत्ति को अर्थापत्ति मानकर आक्षेप किया है इसलिए वह ठीक नहीं। इस पर एक हेतु और देते हैं:

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