सूत्र :प्रतिषेधाप्रामाण्यं चानैकान्तिकत्वात् II2/2/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : व्यभिचार दोष लगाकर जो वादी ने अर्थापत्ति का निषेष किया है, जबकि यह खण्डन आप ही व्यभिचार दोषयुक्त हैं, तब इससे अर्थापत्ति का खण्डन क्योंकर हो सकेगा। क्योंकि सर्वत्र अर्थांपत्ति का खण्डन इस युक्ति से नहीं हो सकता, किन्तु जहां पर भ्रान्ति से अनर्थापत्ति को अर्थापत्ति बनाया गया हो, वहीं पर यह दोष आ सकता है और जहां ठीक अर्थापत्ति हो वहां यह दोष नहीं लगता। इसलिए सब जगह लागू न होने से यह निषेध व्यभिचार युक्त है और भी हेतु देते हैं: