DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :पूरणप्रदाहपाटनानुपलब्धेश्च सम्बन्धाभावः II2/1/52
सूत्र संख्या :52

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यदि यह माना जाये कि शब्द के भीतर ही उसका अर्थ रहता है, तो जो मिसरी का नाम ले उसका मुंह मीठा हो जाना चाहिए और जो अन्न शब्द का उच्चारण करे, उसका पेट भर जाना चाहिए और अग्नि शब्द के कहते ही मुंह जल जाना चाहिए और खड़ग का नाम नाम लेते ही मुंह कट जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता, इससे जाना जाता है कि शब्द और अर्थ में ऐसा सम्बन्ध नहीं कि शब्द के कहते ही अर्थ का ज्ञान हो जाये और न ही शब्द के भीतर अर्थ रहता है। यदि यह कहा जाये कि अर्थ के अन्दर शब्द रहता है तो कण्ठादि में अर्थ के रहने का कोई स्थान नहीं, इसलिए शब्द और अर्थका सम्बन्ध मानना ठीक नहीं।

व्याख्या :
प्रश्न- यदि शब्द से अर्थ का सम्बन्ध नहीं है तो शब्द के कहने से अर्थ का ज्ञान कैसे हो जाता है? उत्तर-शब्द और अर्थ का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु कल्पित या पारिभाषितक है, जिस देश के निवासियों ने जिस शब्द को अपनी भाषा में जिस अर्थ के लिए नियत कर लिया हैं, उनको उस शब्द के सुनने से उसी अर्थ का बोध होता हैं, मानो शब्द उनकी नियत की हुई परिभाषा को स्मरण करा देता है, जैसे ‘गदहा’ शब्द संस्कृत में औषधि या वैद्य का वाचक है, परन्तु हिन्दी भाषा में ‘गदहा’ खर को कहते हैं। यदि संस्कृत में इस शब्द से किसी को पुकारा जायेगा तो वह अपना गौरव समझ कर प्रसन्न होगा। परन्तु यदि किसी हिन्दी भाषी से यह शब्द कह दिया जाये तो वह केवल इसको अपनी मान-हानि ही नहीं समझोगा, अपितु लड़ाई लड़ने पर उद्यत हो जायेगा। फिर शंका करते हैं-

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