सूत्र :तदप्रामाण्य-मनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः II2/1/56
सूत्र संख्या :56
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अनृत (मिथ्या) व्याघात (विरोध) और पुनरूक्त (एक ही बात को बार-बार कहना) इन तीनों दोषों से युक्त होने के कारण शब्द (आप्तोदेश) अप्रमाण है। जैसे शास्त्र में लिखा है ‘‘पुत्र का चाहने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ करे, या स्वर्ग का चाहने वाला यज्ञ करे। ’’बहुत से मनुष्य पुत्रेष्टि करने पर भी पुत्रवान नहीं होते, इसी प्रकार यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति भी संदिग्ध है, बहुत से मनुष्य नित्य यज्ञ करते हैं, जब उनको यहीं पर स्वर्ग नहीं मिलता तब परलोक में स्वर्गंप्राप्ति कल्पित ही समझनी चाहिए। कहीं पर लिखा है कि सूर्योंदय के पहले हवन करना चाहिए, कहीं सूर्यांदय के पश्चात् हवन करना लिखा है इस प्रकार शास्त्रों में परस्पर विरोध भी पाया जाता है। और पुनरूक्ति दोष (एक ही बात को बार-बार कहना तो प्राचीन ग्रंथों में भरा पड़ा है, जो ग्रंथ जितना प्राचीन है उतना ही उसमें पुनरूक्ति दोष अधिकता से विद्यमान है। शब्द में प्रायः ये तीन दोष पाये जाते हैं, इसलिए वह प्रमाण नहीं हो सकता। अगले सूत्र में त्रम से इनका उत्तर दिया गया है। प्रथम अनृत दोष का परिहार करते हैं।