DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :न कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात् II2/1/57
सूत्र संख्या :57

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : वादी ने जो शब्दप्रमाण के खण्डन में अनृत (मिथ्यावाद) का दोष आरोपित किया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि कर्म का फल केवल उपदेश पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु कर्म, कर्ता और साधन इन तीनों से उसका सम्बन्ध है। यदि इन तीनों में से कोई विगुण (अनुपयोगी) होगा तो निर्दिष्ट फल सिद्धि में अवश्य भेद पड़ेगा। जसे किसी रोग के लिए कोई औषधि है, वैद्य ने उसका ठीक निदान न कर सकने से दूसरी औषधि देदी और उसमे रोग दूर न हुआ या या और बढ़ गया तो इसमें औषधि का क्या दोष है? इसी प्रकार जिस रीति से या जिन साधनों से औषधि का प्रयोग उस रोग में होना चाहिए, उस प्रकार नहीं किया गया, तब भी औषधि को या उसके प्रयोग को निष्फल नहीं कहा जा सकता। यही दशा पुत्रेष्टि यज्ञ की भी हो सकती है अर्थात् यज्ञकर्ताओं। के दोष से अथवा यथासमय और यथाविधि यज्ञ के न होने से पुत्रोत्पत्ति न होने पर वेद का उपदेश मिथ्या नही हो सकता।

व्याख्या :
प्रश्न- यदि उपदेष्टा ठीक-ठीक उपदेश करे तो उसके अनुसारकाम करने वाला अवश्य कृतकार्य होना चाहिए। यदि उपदेशानुसार काम करने पर भी यथोक्त फलसिद्धि नहीं होती तो उपदेश अवश्य मिथ्या है। उत्तर- प्रत्येक काम ज्ञान और त्रिया दो बातों से सम्बन्ध रखता है, जब तक ये दोनों ठीक और एक-दूसरे के अनुकूल न हों तब तक अभीष्ट फल की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि ज्ञान में त्रुटि है तो कर्म ठीक हो ही नहीं सकता, यदि कर्म में त्रुटि रह जाये तो केवल ज्ञान से दृष्टार्थ की सिद्धि नहीं होगी। यही कारण है कि प्रायः वैज्ञानिक कर्म सर्वसाधरण की समझ में नहीं आते, इसलिए आप्तोक्त शब्द में मिथ्यावाद का दोष लगाना ठीक नहीं। अब व्याघात दोष का परिहार करते हैं-

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