सूत्र :प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥॥2/47
सूत्र संख्या :47
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - एकपद० ।
पदा० - (प्रयत्रशैथिल्या०) स्वभाविक प्रयत्र की शिथिलता और पक्षु पक्षी सरीसृप = सर्प गोह आदि प्राणियों के अनन्त विध आसनों का चिन्त करने से आसन की सिद्धि होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - स्वभाव सिद्ध प्रयत्न के न्यून कर देने का नाम “प्रयतशैथिल्य” और अनेकविध प्राणियों के आसन की भावना का नाम “अनन्तसमापति” है, जब योगी निरन्तर प्राणियों के आसन अर्थात् बैठने के प्रकार का चिन्तन करता हुआ स्वयं आसन लगाने की चेष्टा करता है और आसन के समय अपने स्वाभाविक प्रयत्र को शिथिल कर देता है जब इसका आसन सिद्ध हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार का आसन लगाना चाहे लगा सकता है।
सं० - अब आसनसिद्धि का फल कथन करते हैं:-