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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :बाह्याभ्यन्तरस्थम्भ वृत्तिः देशकालसन्ख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ॥॥2/50
सूत्र संख्या :50

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - वाह्माभ्यन्तरस्तम्भवृत्ति:। देशकालसंख्याभि:। परिदृष्ट:। दीर्घसूक्ष्म:। पदा० - (वाह्माभ्यन्तरस्तम्भवृत्ति:) वाह्मावृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति, तथा स्तम्भवृत्ति, इस भेद से प्राणायाम तीन प्रकार का है और वह (देशकालसख्याभि:) देष, काल तथा संख्याद्वारा (परिदृष्ट:) परीक्षा किया हुआ (दीर्घसूक्ष्म:) दीर्घसूक्षम कहाजाता है।।

व्याख्या :
भाष्य - जिस प्राणायाम में प्रश्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है उसका नाम “वाह्मवृत्ति” अर्थात् रेचक प्राणायाम है, क्योंकि उसमें बाहर गई वायु का बाहर ही अभाव हो जाता है और जिस प्राणायाम में श्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है उसका नाम “आभ्यन्तरवृत्ति” अर्थात् पूरकप्राणायाम है क्योंकि उसमें बाहर से भीतर गई वायु का भीतर ही अभाव होजाता है और जिस प्राणायाम में श्वास, प्रश्वासपूर्वक का अभाव होता है उसका माम “स्तम्भवृत्ति” अर्थात् कुम्भक प्राणायाम है, क्योंकि उसमें कुम्भस्थ जल की भांति देह के भीतर निश्चलतापूर्वक प्राण की स्थिति होती है।। जब यह तीनों प्राणायाम देश, काल तथा संख्या के द्वारा परीक्षित हुए वृद्धि को प्राप्त होतत हैं तब इनका नाम “दीर्घसूक्ष्म” होता है।। बाहर भीतर के देष का नाम “देश” क्षणों की इयत्ता का नाम “काल” और मात्रा की इयत्ता का नाम “संख्या” है।। प्राणायाम का इतना देशविषय है, इस ज्ञान का नाम “देशपरीक्षा” है, रेचक प्राणायाम के देश का ज्ञान नासिका के आगे प्रादेश, वितस्ति तथा हस्तपरिणाम पर रखे हुए इषीका तूल के कम्प से और पूरक प्राणायाम के देश का ज्ञान चलती हुई भूरी चींटी के स्पर्श समान प्राणों के स्पर्श से होता है कि प्रादेश, वितस्ति वा हस्तपर्य्यन्त, नाभि वा पादतल पर्य्यन्त प्राण की गति है ओर उक्त दोनों चिन्हों के न पाये जाने से कुम्भकप्राणायाम के देश का ज्ञान होता है।। इतने क्षण पर्यन्त प्राणायाम की स्थिति होती है, इस ज्ञान का नाम “कालपरीक्षा” है, यह ज्ञान घड़ी आदि यन्त्र से होता है।। स्वस्थपुरूष की श्वास, प्रश्वासकिया में जितना काल लगता है उतने काल का नाम “मात्रा” है, इतनी मात्रा पर्य्यन्त प्राणायाम की स्थिति होती है इस ज्ञान का नाम “संख्यापरीक्षा” है।। इस प्रकार परीक्षा से अभ्यस्यमान हुए प्राणायाम की अल्पकाल में ही दिवस, मास, वर्ष आदि पर्य्यन्त स्थिति हो जाती है, ऐसा स्थितिवाले प्राणायाम का नाम “दीघ्रसूक्ष्म” है।। तात्पर्य्य यह है कि जैसे धुनी हुई रूई फैलकर दीर्घ तथा सूक्ष्म हो जाती है वैसे ही अभ्यास द्वारा देशकालग्दि की वृद्धि से वर्द्धित हुआ प्राणायाम भी दीर्घ तथा सूक्ष्म हो जाता है इसी कारण योगी लोग उसको दीर्घसूक्ष्म कहते हैं।। यहां इतना स्मरण रहे कि सूत्र में जो रेचक, पूरक, कुम्भक, ऐसा कम लिखा है वह पाठकम है अनुष्ठानक्रम नहीं, क्योंकि उत्सर्गसे पूरक, कुम्भक, रेचक, यह क्रम ही अनुष्ठानक्रम है।। सं० - अब उक्त तीनों प्राणायामों के फलभूत चतुर्थ प्राणायाम का निरूपण करते हैं:-