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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :कृतार्थं प्रतिनष्टंप्यनष्टं तदन्य साधारणत्वात् ॥॥2/22
सूत्र संख्या :22

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - कृतार्थ। प्रति। नष्टं। अपि। अनष्टं तत्। अन्यसाघारणत्वात्। पदा० - (कृतार्थ, प्रति) जिस पुरूषका प्रयोजन सिद्ध होगया है उसके प्रति (नष्टं, अपि) नाश को प्राप्त होने पर भी, प्रकृति (अनष्ंट) स्वरूप से नाश नहीं होती, क्योंकि (तत्) वह (अन्यसाधारणत्वात्) सब के लिये है।।

व्याख्या :
भाष्य - विवेकज्ञान की उत्पत्ति द्वारा जिस पुरूष का अर्थ प्रकृति ने सिद्ध कर दिया है उसको “कृतार्थ”कहते हैं और उसके प्रति संसार के आरम्भ न करने का नाम यहां “नाश” है क्योंकि अनादि होने के कारण प्रकृति का स्वरूप से नाश नहीं हो सकता, यह प्रकृति ईश्वर की आज्ञा से नाना पुरूषों की प्रयोजनसिद्धि के लिये प्रवृत्त हुई उनमें जिस पुरूष का प्रयोजनसिद्ध हो जाता है उसके प्रति नाश को प्राप्त हुई भी अन्य के प्रति नाश नहीं होती क्योंकि अभी उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ और सर्व का प्रयोजन सिद्ध न होने से सर्वथा दृश्यरूप प्रकृति का नाश मानना ठीक नहीं।। सं० - अब द्रष्टा, दृश्य के संयोग का निरूपण करते हैं:-