सूत्र :स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोप्लब्धिहेतुः संयोगः ॥॥2/23
सूत्र संख्या :23
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - स्वस्वामिशक्त्यो: । स्वरूपोपलब्धिहेतु:। संयोगः।
पदा० - (स्वस्वांमिशक्त्यो:) दृश्य और द्रष्टा के (स्वरूपोपलब्धिहेतु:) स्वरूप की उपलब्धि में कारण स्वस्वाभिभावसम्बन्ध का नाम (संयोगः) संयोग है।।
व्याख्या :
भाष्य- अपरोक्ष प्रतीति का नाम “उपलब्धि” तथा बुद्धिरूप से परिणत दृश्य प्रकृति का नाम “स्वशक्ति” और उसके द्रष्टा पुरूष का नाम “स्वामिशक्ति” है, इन दोनों शक्तियों के स्वरूप की उपलब्धि में जो कारण स्वसवाभिभावसम्बन्ध उसको “संयोग” कहते हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि गृह आदि की भांति पुरूष के लिये होने से बुद्धिरूप प्रकृति “स्व” और उसके द्वार भोग मोक्षरूप उपकार का भागी होने से पुरूष “स्वामी” है, इनमें सुखादि विषयों के आकार को प्राप्त हुए स्व के स्वरूप की अपरोक्ष प्रतीति का नाम “भोग” और विवेकाज्ञान द्वारा स्व से भिन्न स्वामी के स्वरूप की उपलब्धि का नाम “अपवर्ग” है, भोग और अपवर्ग रूप पुरूषार्थ की सिद्धि का हेतु जो स्वस्वामिशक्तिरूप प्रकृति पुरूष का परस्पर स्वस्वाभिभाव अथवा दृश्यद्रष्ट्रभाव तथा भोग्यभोक्तृभाव सम्बन्ध है उसी का नाम “संयोग” है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि वास्तव में दुःखात्यन्तनिवृत्तिपूर्वक परमानन्द की प्राप्ति का नाम अपवर्ग है और वह स्व से भिन्न स्वामी के स्वरूप की उपलब्धि से प्राप्त होती है, इसलिये यहां स्वामी के स्वरूप की उपलब्धि को अपवर्ग कथन किया है।।
सं० - अब उक्त संयोग का हेतु कथन करते हैं:-