सूत्र :तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥॥1/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०-तदा। द्रष्टुः । स्वरूपे। अवस्थानम्।
पदा०-(तदा) उस अवस्था में (द्रष्टुः, स्वरूपे) परमात्मा के स्वरूप में (अवस्थानम्) स्थिति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य- जब सर्ववृत्तियों का निरोध होकर चित्त अपने कारण प्रकृति में लीन होजाता है तब इस जीवात्मा का प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थों के साथ सम्बन्ध नहीं रहता, उस अवस्था में वह अपने चेतन स्वरूप से परमात्मा के आनन्द को भोगता हुआ उसी में स्थिर होता है, क्योंकि परमात्मा ही सब जीवों का आश्रण् है।।
इसी भाव को महर्षि कपित सांख्यशास्त्र में इस प्रकार वर्णन करते हैं कि “समाधिसुपुप्तिमोक्षेपु ब्रहारूपता” सां० ५। ११६ =समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में पुरूष की ब्रहा के समान रूपता अर्थात् उसके स्वरूप में स्थिति होती है और इसी अर्थ को “स्वरूपप्रतिष्ठा तदानी चितिशक्तिर्यथाकैवल्ये” इस व्यासभाष्य में इस प्रकार स्पष्ट किया है कि कैवल्य=मुक्ति में प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से मुक्त हुअस चेतनशक्ति पुरूष परमात्मा के स्वरूप में स्थिप होता है, इसी प्रकार चित्तवृत्तिनिरोध काल में इसकी परमात्मा में स्थिति होती है।।
और जो आधुनिक टीकाकार इस सूत्र में “द्रष्टुः” पद से जीवात्मा को कहीं भी मुख्य द्रष्टा नहीं माना किन्तु युद्धि के सम्बन्ध से द्रष्टा माना है, जैसाकि “द्रष्टद्दशिमात्रः शुद्धोऽपिप्रत्ययानुपश्यः” यो० २। २०=ज्ञानस्वरूप पुरूष अपने स्वरूप में ज्ञान का अनाश्रय होने के कारण शुद्ध अर्थात् अद्रष्टा हुआ भी बुद्धि के सम्बन्ध से द्रष्टा है, तीसरे वेद ओर उपनिषदों में भी मुख्यतया परमात्मा को ही द्रष्टा निरूपण किया है, जैसाकिः-
द्वासुपर्णा सयुजा सरवाया समानं वृक्षं परिपस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्न्नन्योऽभिचाकरीति।।
ऋ० २। ३। १७
अर्थ-प्रकृति रूपी वृक्ष पर जीव ओर ईश्वररूपी देा पंक्षी निवास करते हैं जो आपस में चेतन होने के कारण सखा अर्थात् समान धर्मवालने और सेव्य सेवक हैं, उनमें से एक कर्मफल का भोक्ता ओर दूसरा साक्षी अर्थात् द्रष्टा है “नात्योऽतोस्तिद्रष्टा” वृहदा० ३।८। ११ =उस परमात्मा से भिन्न दूसरा कोई द्रष्टा नहीं, और ऐसा मानने से “मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये कार्य्यसम्प्रत्ययः”=मुख्य और अमुख्य की प्राप्ति होने पर मुख्य का ग्रहण होता है, यह न्याय भी सड्डत होजाता है, अतएव यहां द्रष्टा पद से ईश्वर ही का ग्रहण होसकता है जीव का नहीं।।
सं०-व्युत्थान काल में अर्थात् वृत्तियों के बने रहने पर जीवात्मा की स्थिति कहां पर होती है? उत्तर:-