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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥॥1/2
सूत्र संख्या :2

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद०- योगः। चित्तवृत्तिनिरोधः। पदा०- (चित्तवृत्तिनिरोधः) चित्तवृत्ति के निरोध को (योगः) योग कहते हैं।।

व्याख्या :
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। कठ० ६। ११ है जिसमें वह चेष्टा नहीं करती, उस समय पुरूष स्वरूप में स्थित होने के कारण क्केश आदि प्रमाद से रहित होता है, क्योंकि ईश्वरीय गुणों के प्रकाश और क्केशादिकों के नाश का नाम योग है और यह योग जिसका इस औपनिषद दर्शन में वर्णन किया है इसी को भगवान् पतंजलि इस सूत्र में निरूपण करते हैं, चित्त शब्द के अर्थ यहां अन्तःकरण के हैं और वह सत्त्व, रज, तम, इन तीन गुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति का परिणाम=कार्य्य होने से त्रिगुणात्मक है, इसी को मन और बुद्धि भी कहते हैं और इसी के घटपटादि वाहृा पदार्थ तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि आभ्यन्तर पदार्थों को विषय करनेवाले परिणाम-विशेष को वृत्ति कहते है, यह त्रिगुणात्मक अन्तःकरण का परिणाम होने के कारण शान्त, घोर, मूढ, इस भेद से तीन प्रकार की है- सात्त्विकवृत्ति का नाम शान्त, राजसवृत्ति का नाम घोर तथा तामसवृत्ति का नाम मूढऋ है, यह वृत्तियें प्रमाण आदि भेद से कई प्रकार की हैं ओर इन्हीं के निरोध को योग कहते हैं, यह निरोध अभ्यास, वैराग्य आदि साधनों के अनुष्ठान से होता है जिसका १२ वें सूत्र में विस्तारपूर्वक निरूपण किया जायगा।। तात्पर्य यह है कि अभ्यास, वैराग्य आदि साधनों के अनुष्ठान से क्केश कर्माद्किों की निवृत्ति हो हेतु शान्त, घोर, मूढ़, प्रमाण आदि निखिलवृत्तियों के निरोधरूप चित्त की अवस्था विशेष का नाम “योग” है।। क्षेप, मौढय, विक्षेप, एकाय्य, निरोध इस भेद् से चित्त की पांच अवस्था हैं, रजोगुण की अधिकता से सांसारिक विषयों में आसक्त चित्त की अत्यन्त चाश्वल्य अवस्था का नाम “क्षेप” है, इस अवस्था वाला चित्त क्षिप्त कहलाता है, तमोगुण की अधिकता से कत्र्तव्याकत्र्तव्य के विवेक से शून्य चित्त की निद्रा, तन्द्रा, आलस्य आदि अवस्था विशेष का नाम “मौढय” है, इस अवस्था वाला चित्त मूढ़ कहलाता है, सत्त्व गुण की प्रधानता से सांसारिक विषयों से उपराम हुए चित्त की कदाचित् होनेवाली एकाय्य अवस्था का नाम “विक्षेप” है, इस अवस्था वाला चित्त विक्षिप्त कहलाता है, रजोगुण, तमोगुण के सम्बन्ध से रहिते शुद्धसत्त्वंगुण प्रधान चित्त की ईश्वर में एकतान्तारूप अवस्थाविशेष का नाम “एकाय्य” है अर्थात् जिस अवस्था में अभ्यास वैराग्य आदि साधनों के अनुष्ठान से प्रमाण राजस तामस वृत्तियों के निरोध होजाने पर अपनी आत्मा तथा परमात्मा में ही चित्त की स्थिरता होती है उस अवस्था का नाम “एकाय्य” है, इस अवस्था वाला चित्त एकाग्र कहलाता है, जिस अवस्था में आत्मा तथा परमात्मा को विषय करने वाली सात्तिवकवृत्ति भी नहीं रहती ओर चित्त निरावलम्बन हुआ क्केश कर्मादि वासनाओं के सहित अपने कारण प्रकृति में लीन होजाता है और जीवात्मा अपने चैतनयस्वरूप से परमात्मा के स्वरूपभूत आनन्द का अनुभव करता है उस अवस्था विशेष का नाम “निरोध” है, इस अवस्थावाला चित्त निरूद्ध कहलाता है।। इनमें तीसरी अवस्था वाले चित्त का योग में अधिकार है, प्रथम तथा दूसरी अवस्था-वाले का नहीं और अन्त की दोनों अवस्था वाला वित्तयोगी का ही होता है अन्य का नहीं।। सं०-जिस अवस्था में वृत्तियों का निरोध होजाता है उस अवस्था में जीवात्मा की स्थिति कहां होती है? उत्तरः-