सूत्र :वृत्ति सारूप्यमितरत्र ॥॥1/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०-वृत्तिसारूप्यम्। इतरत्र।
पदा०- (इतरत्र) व्युत्थानकाल में (वृत्तिसारूप्यम्) वृत्ति के समान होता है।।
व्याख्या :
भाष्य- जिसकाले में चित्त एकाग्र वा निरूद्ध नहीं किन्तु व्युत्थान को प्राप्त है उस काल में तप्तलोहपिण्ड की भांति का तादात्म्य सम्बन्ध बने रहने से चक्षुरादि के द्वारा वाहृा विषय तथा आभ्यन्तर विषयों मे जिस २ विषय के आकार वाली शांत, घोर तथा मूढ़ चित्त की वृत्तियें उद्य होती हैं उस समय विवेकाग्रह न होने के कारण मै शान्त हूं, मैं घोर हूं, मै मूढ् हूं, इस प्रकार पुरूष उनको अपने में आरोप करलेता है अर्थात् बुद्धिवृत्तियों के समान आकार को धारण किये हुए प्रतीत होता है, जैसाकि “कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हद्यन्तज्र्योतिः पुरूषःस समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव” वृहदा० ४ । ३ । ७ =राजा जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि इस शरीररूप संघात में आत्मा कौन है? याज्वल्क्य ने उत्तर दिया कि हे राजन्! जो बुद्धि के साथ मिला हुआ प्राणद्सिंघात का स्वामी हृदयदेश में स्वयंज्योति पुरूष है वही आत्मा है और वह बुद्धि आदि के सहारे इस लोक तथा परलोक में गमन करता है और जिस २ प्रकार बुद्धि की वृत्तिये उद्य होती हैं वह भी उन्हीं के समान भासता है अर्थात् पुरूष व्युत्थान काल में बुद्धिवृत्ति के समान वृत्तिवाला होता है।।
यहां यह भी जानना आवश्यक है कि बुद्धि की भांति पुरूष की कोई वृत्ति नहीं है, केवल बुद्धि के समीप होने से पुरूष का उसमें प्रतिबिम्ब पड़ता है और प्रतिविम्बित पुरूष में बुद्धिवृत्तियों की छाया पड़ने से पुरूष अविवेक के कारण उनको अपने स्वरूप में आरोप कर अपनी वृत्ति मान लेता है, इसी आशय से भाष्यकार ने कहा है कि “व्युत्थाने याश्रित्तवृत्तयस्तदविशिष्टवृत्तिःपुरूष”=व्युत्थान काल में जैसी २ बुद्धि की वृत्ति होती है उसी के इसी अर्थ को इस प्रकार स्फुट किया है कि “एकमेवदर्शनं ख्यातिरेवदर्शनम्”=व्युत्थान काल में बुद्धिवृत्तिरूप एकही ज्ञान होता है, या यों कहो कि व्युत्थान काल में बुद्धि के समान ही पुरूष का रूप होता है।।
सं०-जिन वृत्तियों के निरोध का नाम योग है वह कितने प्रकार की है? उत्तर:-