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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥॥1/43
सूत्र संख्या :43

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - स्मृतिपरिशुद्धौ। स्वरूपशून्या। इव । अर्थमात्रनिर्भासा। निर्वितर्का। पदा० - (स्मृतिपरिशुद्धौ) विकल्प के कारण वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध के विस्मरण हो जानेपर (स्वरूपशून्ययइव) अपने स्वरूप से शून्यकी भांति (अर्थमात्रनिर्भासा) केवल निर्विकल्प अर्थ के स्वरूप से भान होनेवाली चित्तवृत्ति को (विर्वितर्का) निर्वितर्क समाधि कहते हैं।।

व्याख्या :
भाष्य - शब्द तथा अर्थ के वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध को संकेत कहते हैं, जब वह सवितर्कसमाधि के पुनः २ अभ्यास से विस्मरण होता है तब अर्थ के वाचक शब्द तथा शब्द से उत्पन्न होनेवाले ज्ञानकी उपस्थिति नहीं होती, उपस्थिति न होने के कारण उन दोनों के विकल्प से रहित केवल असंकीर्ण अर्थ में होने वाली समाधि का नाम निर्वितर्क है अर्थात् जिस समाधि में अर्थाकार योगीकी चित्तवृत्ति अपने आलम्बन अर्थ से पृथक् प्रतीति के योग्य नहीं रहती और शब्द तथा ज्ञान के विकल्प से शून्य केवल अर्थ ही अर्थ का मान होता है उसको निर्वितर्कसमाधि कहते हैं।। भाव यह है कि जिस समाधि में शब्द तथा ज्ञान के विकल्प से रहित केवल परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुई योगी की चित्तवृत्ति परमात्मस्वरूप ही हो जाती है उसको निर्वितर्कसमाधि कहते हैं।। इस समाधि में विकल्प रहित यथार्थ अर्थ का भान होने से योगीजन इसको “परप्रत्यक्ष” कहते हैं। शास्त्रकार इसी समाधि द्वारा यथार्थ रूपसे सम्पूर्ण अर्थो का साक्षात्कार करके पुनः शब्द तथा ज्ञान के विकल्प द्वारा उनका उपदेश तथा प्रतिपादन करते हैं, अतएव प्रथम योगी को सवितर्कसमाधि में भी विकल्पित अर्थ का ही भान होता है, यह समाधि प्रथम की अपेक्षा उत्कृष्ट है।। सं० - वितर्क समाधि के दोनों भेदों का लक्षण करके अब विचारसमाधि के सविचार तथा निर्विचार भेदों का लक्षण करते हैं:-