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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥॥1/42
सूत्र संख्या :42

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - तत्र। शब्दार्थज्ञाननविकल्पै:। सडंकीर्णा। सवितर्का । समापत्ति:। पदा० - (तत्र) पूर्वोक्त समाधियों के मध्य में (शब्दार्थज्ञानविकल्पै:) शब्द, अर्थ, ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से (सडंकीर्णा) मिली हुई जो (समपत्ति:) सम्प्रज्ञातसमाधि है उसको (सवितर्का) सवितर्क कहते हैं।।

व्याख्या :
भाष्य - श्रोत्र इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य ध्वनि के परिणाम को शब्द कहते हैं अर्थात् जो तालु आदि स्थानों के संयोग से प्रकट होकर श्रोत्र इन्द्रिय से ग्रहण की जाय, ऐसा ध्वनि विशेष का नाम “शब्द” है, गोत्व आदि जाति के आश्रय गो आदि व्यक्ति का नाम “अर्थ” है, उस अर्थ का विषय करने वाली शब्द से उत्पत्र हुई चित्तनिवृत्ति का नाम “ज्ञान” है, इन तीनों की अभेद रूप से प्रतीति का नाम “विकल्प” है, जो समाधि इन तीन भिन्न - भिन्न पदार्थों को अभिन्न रूप से विषय करती है अर्थात् जिस समाधि में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का अभेद रूप से मान होता है उसको सवितर्कसमाधि कहते हैं।। भाव यह है कि जिस समाधि में योगी का परमात्मा के सर्वज्ञातृत्वस्वरूप का अपने वाचक शब्द तथा अपने ज्ञान से क्षीरनीर की भांति मिश्रित का मान होता है उसको सवितर्कसमाधि कहते हैं, और विकल्पित अर्थ को विषय के कारण योगियों की परिभाषा में इसका नाम “अपरप्रत्यक्ष” है, अभ्यास, वैराग्यादि साधनों के अनुष्ठान से यह योगी को प्रथम प्राप्त होता है अर्थात् “परमात्मा संर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् है” इस प्रकार के अनुसंधान करने से जो परमात्मा के स्वरूप में योगी के चित्त की स्थिति होती है उसको सवितर्कसमाधि कहते हैं।। सं० - अब निर्वितर्क समाधि का लक्षण करते हैं:-