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वैशेषिक दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
Language

Darshan

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सूत्र :नित्येष्वभावादनित्येषु भावात्कारणे कालाख्येति 2/2/9
सूत्र संख्या :9

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : नित्य पदार्थों में न होने और अनित्यों में होने से काल का भी कारण मानना चाहिए, क्योंकि काल के जो लिंग बतलाये गये हैं, जैसे एक साथ पैदा हुआ, देर से पैदा हुआ, जल्दी पैदा हुआ, अब पैदा हुआ, पहले पैदा हुआ रात को पैदा हुआ, दिन में पैदा हुआ। इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अनित्यों में ही हो सकता है। आकाश के लिए ऐसा नहीं सकते। आशय यह है कि समय के विभाग का प्रयोग अनित्य पदार्थों ही में हो सकता है न कि नित्य पदार्थों में अर्थात् कार्य में प्रयोग होता है न कि कारण में। इसलिए काल को एक उत्पत्ति उत्पन्न हुआ, इस प्रकार कार्य में ही इनका प्रयोग कर कसते हैं।

व्याख्या :
प्रश्न- नित्य के साथ भी काल का सम्बन्ध पाया जाता है, जैसे उपनिषदों में लिखा है कि इस सृष्टि से पूर्व भी ब्रह्य था, जब सूर्य ‘‘चन्द्रमा उत्पन्न नहजीं हुए थे तब भी ब्रह्य था’’ आदि। उत्तर- इनका स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है अर्थात् ब्रह्य का उत्पन्न होना इससे सिद्ध नहीं होता किन्तु कार्यों की अपेक्षा से ब्रह्य में पूर्व होना माना गया है। वास्तव में ‘‘हुआ होगा’’ ‘‘हो चुका इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग नित्य पार्थ के साथ नहीं हो सकता, क्योंकि ‘‘हुआ था’’ ऐसा कहने से, इसका पूर्व समय होना, अब न होना सिद्ध होता है। ‘‘होगा’’ इससे वर्तमान समय में न होना, आगे को होना पाया जाता है। परन्तु नित्य पदार्थ तीनों कालों में होता है किसी काल में उसका अभाव नहीं होता, इसलिए काल के साथ उसका सम्बन्ध विदित होने में भी काल, कारण सिद्ध होता हैं अग दिशा का विचार करते हैं।