सूत्र :पुष्पवस्त्रयोः सति संनिकर्षे गुणान्तराप्रादुर्भावो वस्त्रे गन्धाभावलिङ्गम् 2/2/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अब पंचभूतों के गुणों का वर्ण करने के लिए प्रथम स्वाभाविक गुण और नैमित्तिक गुणों का वर्ण करते हैं कि जिससे ज्ञात हो जावे कि यह स्वाभाविक है, और यह नैमित्तिक है। स्वाभाविक गुण वह कहाता है कि जो भूत के अवयवों में होता है, और अवयचों के दूसरे तत्त्व के मिलने से प्रत्यक्ष होता है ।
सूत्रार्थ- वस्त्र और पुष्य के संयो्र विशेष से किसी दूसरें गुण का प्रत्यक्ष न होना, कपड़े में गन्ध के न होने का लिंग है। क्योंकि पुरूष के संयोग से गन्ध का अनुभव होता है, और उसके अभाव में गन्ध का भी अभाव रहता है। अभिप्राय यह है कि रूप,रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुण जहां स्वाभाविक रीत्या जावें, वही लक्षण कहाते हैं। इसके विरूद्ध लक्षण नहीं कहे जा सकते हैं। जैसे वायु में गन्ध, पत्थर के नीचे सरदी, पानी में गर्मी ये लक्षण नहीं कहे जा सकते, इसलिए स्वाभाविक गुण ही लक्षण हो सकता है।
व्याख्या :
प्रश्न- किसी ने पूछा कि देवदत्त का मकान कौन सा है? उत्तर में उसने कहा कि कौवे वाला अर्थात् जिस पर कौवा बैठा है। वह मनुष्य वहीं जा पहुंचा। क्या यह लक्षण नहीं?
उत्तर- यह स्वरूप लक्षण नहीं, किन्तु नैमित्तिक है। यदि कौवा उसके पहुंचने से पूर्व हो उड़ जावे कैसे पहिचान सके कि यह देवदत्त का गृह है? इसलिए स्वाभाविक गुण ही लक्षण हो सकता है, नैमित्तिक नहीं।
प्रश्न- जो कपड़े में गन्ध का न होना बतलाया गया है, यह ठीक नहीं क्योंकि कपड़े के जलाने से गन्ध का प्रत्यक्ष होता है?
उत्तर- यहां पुष्य के समान सुगन्ध से आशय है, सामान्य गन्ध से नहीं, क्योंकि वस्त्र पृथ्वी-मही से बना है, उसमें उसके कारण का गुण गन्ध अवश्य होगा।
प्रश्न- क्या प्रमाण है कि पृथ्वी का गुण गन्ध है?