सूत्र :सामान्य विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम् 1/2/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सामान्य और विशेष यह बुद्धि की अपेक्ष से लिए जाते हैं। जो बहुतों से सम्बन्ध रखे वह सामान्य है, जो थोड़ी वस्तुओं से सम्बन्ध रखे वह विशेष है इसका आशय यह है कि जो गुण बहुत देश वा व्यक्तियों से सम्बन्ध रखे सामान्य कहलावेगा जो गुण थोड़े से देश वा व्यक्तियों में रहे, वह विशेष कहलावेगा। आशय यह है कि जो गुण बहुत देश व्यक्तियों में पाये जावें वे सामान्य कहावेंगे, अब न्यून वा अधिक बुद्धि से जाना जाता है। जैसे कहा जावे कि ‘सजीव’ तो यह गुण सम्पूर्ण प्राणियों में पाया जाता है, इसलिए सामान्य है। और यदि कहा जावे ‘‘मनष्य’’ तो यह गुण केवल इन नरों में ही पाये जाते हैं शेष जानदार इससे पृथक् हो जाते हैं। इस लिए इसको विशेष कहते हैं। इसी प्रकार ‘‘हिन्दुस्तानी आदमी’’ यह समान्य है परन्तु उसमें ब्राह्यण विशेष है। ऐसे ही ब्राह्यण सामान्य हैं और गौड़ ब्राह्यण विशेष हैं। वही मनुष्य जो जानदान की अपेक्षा विशेष था, हिन्दुस्दानी की अपेक्षा से सामान्य हो गया क्योंकि वह सम्पूर्ण मनुष्य को लिये हुए था, और यह केवल हिन्दुस्तानियों के लिए प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु ब्राह्यण शब्द ब्राह्यण वर्ण के लिए ही प्रयुक्त हे सकता है। आशय यह है कि सामान्य और विशेष केवल बुद्धि ही पर निर्भर है। क्योंकि एक ही वस्तु एक की अपेक्षा से सामान्यहै तो दूसरे की अपेक्षा से विशेष है परन्तु जो सब के लिए प्रयुक्त होता है यह सदैव सामान्य ही रहता है, क्योंकि उससे अधिक देश में रहने वाला कोई अन्य गुण ही नहीं जिसकी अपेक्षा से वह विशेष हो सके। जैसे सत्ता का गुण प्रत्येक वस्तु में रहता है, इसलिए वह सामान्य है यह कभी विशेष नहीं हो सकती। आशय यह है कि कोई सर्वव्यापक वस्तु विशेष नहीं हो सकती वह सदैव सामान्य ही रहेगी। सर्वव्यापक पदार्थों को छोड़ कर शेष पदार्थों में सामान्य और विशेष बुद्धि से निश्चित किया जाता है इसी को आगे और भी पुष्ट करते हैः-