सूत्र :न तु कार्याभावात्कारणाभावः 1/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : परन्तु कार्य के होने से कार्य का अभाव नहीं हो सकता। आशय यह है कि कारण के आश्रित कार्य की सत्ता है, किन्तु कार्य के आश्रित करने की शक्ति है वह दो अवस्थाओं में रहती है पहली स्वाश्रय और दूसरी कामिकी। जिस प्रकार जिह्ना में बोलने के शक्ति- जब चाहे बोले जब चाहे बोले जब चाहे न बोले, परन्तु बिना जिह्ना के बोलना सम्भव नहीं। और भी जिस प्रकार जीव में कर्म करने की शक्ति है-चाहे करे चाहे न करे। कर्म के न करने से कर्म के अभाव में जीव का अभाव नहीं हो सकता वैशेषिक शास्त्र के नवीन पुस्तक बनाने वालों ने जो अभाव को पदार्थ मानकर सात पदार्थ बतलाये हैं, यह उन्होने कोई अच्छी बात नहीं की, किन्तु यह ज्ञात होता है कि उन्होंने सूत्रकार के आशय को न समझकर यह मान लिया है। यह निश्चय हो जाता है कि कारण के न होने से कार्य नहीं होता तो मोक्ष अर्थात् दुःख से छूटने की इच्छा रखने वाला मनुष्य यह सोच सकता है कि यदि दुःखों के कारण का नाश हो जावे तो अवश्य दुःख का नाश होगा जहां तक पता लगता है यह ठीक-ठीक ज्ञान होता है कि दुःखों का कारण विपरीत ज्ञान है। क्योंकि यह जड़ जगत चेष्टा रहित है, जीवात्मा को सुख-दुःख नहीं दे सकता। जीवात्मा अपनी अल्पज्ञता से किसी वस्तु को सुख का कारण मानता है, किसी किसी को दुःख का कारण मानता है। इस विपरीत ज्ञान से रागद्वेष और दोष उत्पन्न होते हैं जिसमें राग है उसको प्राप्त करने की और जिस से द्वेष है उसका त्यागने की इच्छा होती है। इससे धर्म और अधर्म दो प्रकार के कर्म होते हैं जिससे जन्म-मरण होती हैं जो दुःख का कारण होते हैं। यदि किसी को सन्देह हो कि इस मिथ्या ज्ञान का कारण जो अल्पज्ञ जीवात्मा की अल्पज्ञता है इस मिथ्या ज्ञान के नाश से जीवात्मा का भी नाश हो जावेगा। यह सत्य नहीं है। क्योंकि कार्य के नाश से कारण का नाश नहीं होता द्रव्य, गुण और कर्म के लक्षणों के उपरान्त सामान्य विशेष का लक्षण हैं।