सूत्र :अभिषेचनोपवासब्रह्म-चर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिङ्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय 6/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : निम्नलिखित का अदृष्ट फल अर्थात् मोक्ष और आगामी जीवन में सुख देने वाले हैं। पहिले अन्तुःकरण की शुद्धि का प्रबन्ध करना जिसको स्नान कहते हैं। कुछ मनुष्य स्नान का तात्पर्य केवल जल से शरीर को पवित्र करना ही समझते हैं परन्तु इतना ही नहीं प्रत्युत शुद्धि के लिए ऐसे स्नान की आवश्यकता है जिसको महात्मा श्रीकृष्ण जी ने अजुग्न का बतलाया था । आत्मा रूपी नदी है, संयम और पुण्य के घाट हैं, सत्य का जल भरा है, शील के तट हैं और दया की लहरें उठ रही हैं, हे अर्जुन! तू ऐसी नदी में स्नान कर। केवल जल से आत्मा शुद्ध नहीं हो सकती। व्रत करना अर्थात् कृच्छ चान्द्रायण आदि, ब्रह्यचारी होना, गुरूकुल में शिक्षा प्राप्ति के लिए वास करना, वानप्रस्थाश्रम को यथावत् पालन करना, प्रोक्षण अर्थात् यज्ञ में विधिवत् सामग्री डालना, और सन्ध्या आदि में दिशा और नक्षत्र और समय के नियमों का यथावत् पालन करना।
व्याख्या :
प्रश्न- ब्रह्यचारी बनने से तो शरीर पुष्ट होता है और ज्ञान की प्राप्ति होती है इसलिए वह दुष्ट कर्म है?
उत्तर- यद्यपि ब्रह्यचारी होने का फल यहां भी मिलता है परन्तु विद्याफल नहीं है, किन्तु कर्मों का साधन है या उद्देश्य प्राप्ति में सहायक है, इसलिये इस व्रत का मुख्य फल आगे ही मिलेगा। कर्म के दो फल होते हैं एक संस्कार दूसरे भोग। यह केवल संस्कार है। भोग असमय नहीं मिलता। इस ही प्रकार और कर्मों को भी विचार लेना चाहिए।
प्रश्न- नक्षत्र के नियम से क्या तात्पयै है? वह किस प्रकार से फल देने वाला है?
उत्तर- प्रातःकाल की सन्ध्या तारों की विद्यमानता में करे, और सांय संध्या के होने पर। इस प्रकार के जो कर्मकाण्ड के नियम है उनका पालन करे।
प्रश्न- क्या शुभ कर्मों का हो अदृष्ट फल होता है या अशुभ कर्मों का भी, यदि बुरे कर्मों का भी अदृष्ट फल है तो वे कौन से हैं?