सूत्र :संयोगि समवाय्येका-र्थसमवायि विरोधि च 3/1/9
सूत्र संख्या :9
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रतिपक्षी ने यह जो कहा था कि कार्य कि कार्य कारण वा तादात्म्य सम्बन्ध के बिना सम्बन्ध नहीं होता, उसका खण्डन करते हैं-यह कहना ठीक नहीं कि जहां ये दो बातें हों वहीं सम्बन्ध होता है, किन्तु और प्रकार से भी सम्बन्ध होता है, क्योंकि संयोग, समवाय, एकार्थ समवाय और विरोधि ये चार प्रकार के लिगंन होते हैं। जैसे गाड़ियों को नियम पूर्वक चलता देखकर यह अनुमान करना कि इनके सारथी दक्ष हैं शरीर खाल के बराबर है शरीर होने से, यह संयोगी का दृष्टान्त है। जितना शरीर बढ़ता है वैसे ही त्वचा भी बढ़ती है; जितना शरीर घटता है उतनी ही त्वचा घटती है, अब त्वचा न शरीर का कारण है न कार्य है, केवल एक साथ उत्पन्न होने से नित सम्बन्ध है।
समवाय का दृष्टान्त यह है-जैसे दूसरे गाय के सींगों को देखकर, या पुष्पों की सुगन्ध के आने से उनकी सत्ता का ज्ञान होता है। एकार्थ समवाय का दृष्टान्त सूत्रकार स्वयं देते हैं-