सूत्र :कारणाज्ञानात् 3/1/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : शरीर का कारण, जो पृथ्वी, आप, तेज और वायु आदि हैं अथवा शरीर का अवयव जो हस्तपादादि हैं, उनमें ज्ञान की प्रतीत नहीं होती। जो गुण उपादान कारण में होते हैं वही कार्य में होते हैं, शरीर कारण ज्ञान न होने से शरीर के गुण का ज्ञान होना सिद्ध नहीं होता।
व्याख्या :
प्रश्न- शरीर के कारण पृथ्वी और जलादि में ज्ञान विद्यमान है?
अर्थ- शरीर के अनेक कारण हैं, और उन सब में चेतन होने वाला ज्ञान विद्यमान है, तो तो बहुत सी चेतन वस्तुओं का एक मत असम्भव है। और अवयवों को जो चेतन मान लिया जावे तो हाथ कट जाने पर हाथ से जितने कर्म हुए थे वे याद न आने चाहिए, क्योंकि दूसरे के ज्ञान को दूसरा नहीं याद कर सकता। और शरीर के नाष होने के उपरांत शरी के लिए हुए कर्मों का शुभाशुभ फल नहीं होना चाहिए, जो योनि आदि के भेदों से प्रतीत होता है। यदि ये सुख दुःख आकस्मिक माने जावें, और इनके कारण पिछले जन्म के कर्म न माने जावें, तो बिना कारण के कोई कार्य होता ही नहीं, इससे यह मानना ठीक नहीं होगा। यदि कहो कि आकस्मिक भोग होना भी मान लो तो किए हुए फल न मिलता और बिना किए का फल पाना, यह दोष उत्पन्न होगा जिससे सारे शुभ कर्मों का लोप हो जावेगा क्योंकि उनके मूल ही स्थिति नहीं रहेगी। इसलिए शरीर के कारणों में चेतना न होने से ज्ञान शरीर का गुण नहीं हो सकता।
प्रश्न- नहीं, शरीर के मूल कारणों में सूक्ष्म ज्ञान है जो स्थूल शरीर में प्रकट हो जाता है, इसलिए कारण के गुण के अनुसार ही कार्य में गुण आते हैं?