सूत्र :इन्द्रियार्थाप्रसिद्धिरिन्द्रियार्थेभ्योऽर्थान्तरस्य हेतुः 3/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इंद्रिय और उसके अर्थों का नियमित होना और प्रसद्ध होना इंद्रियों के स्वामी को सिद्ध करता है अर्थात् इंद्रियों से पृथक् है जो उनके विषयों से परिमाण निकलता है। जैसे आंख एक पदार्थ को देखती है तो उसी वस्तु को हाथ उठाता है, यदि आंख से पृथक् कोई शक्ति न हो तो आंख की देखी हुई वस्तु का हाथ को कैसे ज्ञान हो जिससे वह उठावे। जिस स्थान को हम कान से सुनते हैं, पाओं से उसी ओर चल देते हैं। यदि कान से पृथक् कोई शक्ति न हो तो कानों से सुने हुए मार्ग का पांवों को कैसे ज्ञान हो? इसलिए सम्पूर्ण ज्ञाननेन्द्रियों के विषय को जानने वाले एक आत्मा की सिद्ध होती है। जो ज्ञान इंद्रियों से प्राप्त करके उसके अनुकूल कर्म इंद्रियों से काम लेता है, इंद्रिय जिस जानने वाले या कर्म करने वाले के कारण (साधन) है, वह उनके विषयों के नियत से, उनसे पृथक् सिद्धहोता है जो इन साधनों से काम लेता है।
प्रश्न- इस नियम और प्रसिद्ध का कारण शरीर है जिसकी इंद्रिया अवयव हो सकती है, इनसे पृथक् कोई आत्मा नहीं है क्योंकि इंद्रिय व शरीर से ज्ञान होना देखते हैं। बिना शरीर के ज्ञान व कर्म दोनों नहीं होते, इसलिए शरीर से पृथक् किसी आत्मा के मानने की आवशयकता नहीं।