सूत्र :संख्याभावः सामान्यतः इति द्वितीय आह्निकः इति द्वितीयोऽध्यायः 2/2/37
सूत्र संख्या :37
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : संख्या का नियम जाति के अभिप्राय से है। चाहे अक्षर अनन्त हों परन्तु उनमें स्थान के भेद से इतनी जाति हैं 63 अक्षर नहीं किन्तु इतनी जाति हैं। चाहे एक लक्ष ‘‘क’’ हों परन्तु वह उस जाति में सम्मिलितअ होने से एक हो सकते हैं जैसे एक मोर को देखने के उपरान्त प्रत्येक मोर को कहते हैं कि मोर आया, इसी प्रकार अक्षरों को जानना चाहिए। यद्यपि द्रव्य असंयख् हैं परन्तु जाति के सम्बन्ध से 9 कहे जाते हैं। वैसे ही गुण भी अनेक हैं परन्तु 24 प्रकार के भेद किये गए हैं। ऐसे ही असंख्य अक्षर नियमित जाति में सम्मिलित किए है। इसलिए संख्या से शब्दों का नित्य होना सिद्ध नहीं होता।
व्याख्या :
प्रश्न- वर्णों को अनित्य कहना ठीक नहीं; क्योंकि प्रायः कहते है कि यह वहीं ‘‘ग’’ है; इस स्मृति से ‘‘ग’’ का नित्य होना सिद्ध हैं।
उत्तर- यहीं ‘‘ग’’ है, यह केवल जातित्व से कहा जाता है, उसमें अन्तर होता है; कोई मन्दता से बोला है कोई तीव्रता से।
प्रश्न- यह अन्तर वास्तव में शब्द में नहीं होता किन्तु यह तो नैमित्ति कारणों से प्रतीत होता है। जैसे किसी हीरे पर फल की छाया पड़ने से हीरा उस रंग का प्रतीत होता है।
उत्तर- पहले यह सोचना चाहिए कि मन्द और तीव्र होना किसका गुण है? हवा का, नाद का अथवा ध्वनि का। यदि कहो वायु का तो सम्भव नहीं क्योंकि एकसी चलने वाली है, किसी के कहने से उच्च होता है। ऐसे ही नाद और ध्वनि का गुण नहीं होसकता इसलिए ‘‘ग’’ उत्पन्न नष्ट हो गया, ऐसा सुनने से ऐसा निश्चय होता है कि वर्ण भी उत्पन्न होने वाले हैं इसलिए अनित्य है।
वैशेषिक दर्शन भाषानुवाव का दूसरा अध्याय समाप्त हुआ!