सूत्र :प्रथमाशब्दात् 2/2/34
सूत्र संख्या :34
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वेद में यज्ञ के प्रकारण में अग्नि जलाने में जो ऋचायं पढ़ी जाती हैं, उसमें कहा है कि तीन बार प्रथमा को पढ़ा जावे और तीन बार उत्तमा को पढ़ा जावे। यदि शब्द ठहरने वाला न हो तो प्रक्मा और उत्तमा ठहर नहीं सकतीं, तो प्रत्येक यज्ञ में उनके पढ़ने का उपदेश कैसे हो सकता है? क्योंकि शब्द के नित्य न होने से उनका तीन बार पढ़ना असम्भव है किन्तु प्रत्येक बार नये शब्द की उत्पत्ति होगी। एक का तीन बार-पढ़ना नहीं होगा, क्योंकि वह शब्द तो पढ़ने के उपरान्त नष्ट हो गया; जो नष्ट हो गया उसका पुनः होना किसी प्रकार सम्भव नहीं अर्थात् शब्द को नित्य ही मानना चाहिए इस पर और हेतु देते है।-