सूत्र :अभिव्यक्तौ दोषात् 2/2/30
सूत्र संख्या :30
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि शब्द का उत्पन्न न होना मानकर केवल प्रकट होना माना जावे तो उसमें यह दोष होगा कि दोनों एक देश में रहने वाले अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य होंगे परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता कि अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य दोनों एक देशमें रहते हों और नियत हों। यदि तुम नियत अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य मानोगे तो ‘क’की अभिव्यक्ति से संपूर्ण वर्णों की अभिव्यक्ति (प्रकाश) होगी।
व्याख्या :
प्रश्न- एक की देश में रहने वालों में भी अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य संभव हैं, जैसे एक ही मनुष्य में सत्ता, मनुष्यत्व और ब्राह्यणत्व रहते हैं और वह ब्राह्यणपन उसी शरीर में रहता हुआ अभिव्यंजक है। ब्राह्य के बतलाने के लिए ब्राह्यणत्व ही अभिव्यंजक हैं, और ये दोनों एक ही शरर में रहते हैं।
उत्तर- उनमें एक स्थान पर रहने वाला होना नहीं पाया जाता हैं क्योंकि जितने स्थान पर सत्ता रहती है उतने ही स्थान पर मनुष्यत्व रहीं रहता, क्योंकि सत्ता सारी वस्तुओं में रहेगी और मनुष्यत्व केवल मनुष्यों में रहेगा ऐसे ही ब्राह्यणत्व केवल ब्राह्यणों में रहेगा और मनुष्यत्व सारे मनुष्यों में रहेगा, इसलिए शब्द में अभिव्यंजक और अभिव्यंग्य होने का दोष असिद्ध है।