सूत्र :स्मृतेश्च II5/122
सूत्र संख्या :122
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : ‘‘शरीरजैः कमदोपैर्याति सर्थावरतां रनः’’ शरीर से पैदा हुए कर्म के दोषों से मनुष्य स्थावर योनि को प्राप्त होता है, इस बात को स्मृतियां कहती हैं। इससे सिद्ध होता है कि स्थावर भी शरीरी हैं?
प्रश्न- जबकि वृक्षादिकों को भी शरीरधरी मानते हो तो उनमें धर्माधर्म मानने चाहियें?