सूत्र :द्वयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वान्न तु द्वौ II5/118
सूत्र संख्या :118
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे समाधि और सुषुप्ति यहदोनों प्रत्यक्ष दीखती हैं, वैसे ही मोक्ष भी प्रत्यक्ष दीखता हैं वह प्रत्यक्ष इस प्रकार होता है कि जब तक मनुष्य किसी कर्म को करके उसका फल नहीं भोग लेता है तब तक कर्म के साधन करने के लिए उसकी नीयत नहीं होती, जैसे-पहले भोजन कर चुके हैं तो दूसरे दिन भी भोजन करने के लिए उपाय किया जाता है। इसी तरह जब पहिले जीव मोक्ष के सुख को जान चुका है तब फिर भी मोक्ष सुख के लिए उपाय करने की नीयत होती है। यदि यह कहा जावे कि इस जन्म में जिस मनुष्य ने कभी राज्य सुख नहीं भोगा है, परन्तु उसकी यह इच्छा रहती है कि राज्य का सुख प्राप्त हो। इसका यह उत्तर है कि राज्य में जो सुख होता है उसका तो नेत्रों से देखते हैं इससे यह साबित हुआ कि या तो मोक्ष का सुख कभी आप उठाया है अथवा किसी को मोक्ष से आनन्दित देखा है, इसलिये उसकी मोक्ष में नीयत होती है, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है औा अनुमान से इस प्रकार मोक्ष को जान सकता है कि सुषुप्ति में जो आनन्द प्राप्त होता है उसको नाश करने वाले चित्त के रागादि दोष हैं वे रागादिक ज्ञान के अतिरिक्त और किसी प्रकार नाश नहीं हो सकते हैं। जब ज्ञान प्राप्त हो जायेगा तब सुषुप्ति आदि सब अवस्थाओें की अपेक्षा जिसमें अधिक समय तक आनन्द की प्राप्ति हो, ऐसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं।
प्रश्न- समाधि में तो वैराग्य से कर्मों की वासना कमती हों जाती है, इस वास्ते समाधि में तो आनन्द प्राप्त हो सकता है, परन्तु सुषुप्ति में वासना प्रबल होती है, तो पदार्थों का ज्ञान भी अवश्य होगा अर्थात् वासनायें अपने विषय की तरफ खेंकर उनमें जीव को लगा देंगी। जब पदार्थ का ज्ञान रहा तो आनन्द प्राप्ति कैसी?