सूत्र :वासनयानर्थख्यापनं दोषयोगेऽपि न निमित्तस्य प्रधानबाधकत्वम् II5/119
सूत्र संख्या :119
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे वैराग्य में वासना कमती होकर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती, इस तरह निद्रा दोष के योग से भी वासना अपने विषय की ओर नहीं खींच सकती, क्योंकि वासनाओं का निमित्त जो संस्कार है वह निद्रा के दोष से बाधित हो चुका है, इस वास्ते सुषुप्ति में भी समाधि की तरह आनन्द रहता है। पहले इस बात को कह चुके हैं कि संस्कार के लेश से जीवान्मुक्त शरीर बन सकता है।
प्रश्न- जब संस्कार से शरीर बना रहता है वह एक ही संस्कार उस जीव के प्राण धारणरूपी त्रिया को दूर कर देता है वा पृथक्-पृथक् त्रियाओं के लिए पृथक्-पृथक् संस्कार हैं?