DARSHAN
दर्शन शास्त्र : सांख्य दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता II5/116
सूत्र संख्या :116

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में पुरूष को ब्रह्यरूपता हो जाती है अर्थात् जैसा ब्रह्य आनन्स्वरूप हैं वैसे ही जीव भी आनन्दस्वरूप हो जाता है। इस सूत्र का अर्थ और टीकाकारों ने ऐसा किया है कि समाधि, सुषुप्ति, मोक्ष इन तीनों अवस्थाओं में जीव ब्रह्य हो जाता है, परन्तु ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं हैं, क्योंकि रूप शब्द का सादृश अर्थ है, जैसा कि अमुक मनुष्य देवस्वरूप है इसके कहने से यह प्रयोजन सिद्ध हो जाता है कि यह देव नहीं है, किन्तु देवताओं के से उसमें गुण है जो विद्वान हैं उनको ही देवता कहते हैं, इस बात को यह कह चुके हैं। इसी से उसको देवस्वरूप कहा गया। यदि देवता ही कहना स्वीकार होता तो अमुक मनुष्य देवता है उतना ही कहना योग्य था, इसलिये इस कहे हुए सूत्र में भी ब्रह्य के से कितने ही गुण इन अवस्थाओं में हो जाते हैं, परन्तु जीव ब्रह्य नहीं हो जाता है तो ‘ब्रह्यरूपता’ न कहते, किन्तु ‘‘ब्रह्यत्वम्’’ ऐसा कहते। जो ब्रह्य को और जीव को एक मानते हैं उनका मत इस ज्ञापन से दूषित हुआ। प्रश्न- जबकि समाधि और सुषुप्ति में भी आनन्द हो जाता है, तो मुक्ति के लिस उपाय को क्या जरूरत है, और मुक्ति में अधिक कौनसी बात रही है?

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