सूत्र :एकः संस्कारः क्रियानिर्वर्तको न तु प्रतिक्रियं संस्कारभेदा बहुकल्पनाप्रसक्तेः II5/120
सूत्र संख्या :120
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस संस्कार से शरीर का कार्य चल रहा है वह एक ही संस्कार निवृत्त होकर शारिरिक त्रियाओं को भी दूर कर देता है। हर एक त्रिया के वास्ते अलग-अलग संस्कार नहीं मानने चाहियें, क्योंकि बहुत से संस्कार हो जायेंगे और उन बहुत से संस्कारों का होना व्यर्थ हैं।
प्रश्न- सुषुप्ति अवस्था में बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, इस कारण उस दशा में शरीर को भोगायतन मानना ठीक नहीं।