सूत्र :सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात् II5/56
सूत्र संख्या :56
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि ऐसा माना जाय कि वेदों का अर्थ हैं भी और नहीं भी है, क्योंकि जो संसार के कार्यों में चतुर नहीं हैं उनको वेदों के अर्थ का बोध होता हैं, और जो सांसारिक कार्यों में चतुर हैं, उनका अबाध होता है, इस तरह स्यादस्ति, स्यान्नास्ति है या नहीं इस तरह जैनों के मत अनुसार ही माना जाय, तो भी ठीक नहीं। इस सूत्र में पहिले सूत्र से नकार अनुवृत्ति आती है। ‘‘नासतः ख्यानृश्रृंगगवत्’’ इस सूत्र से लेकर ५६वें सूत्र तक जो अर्थ विज्ञानभिक्षु ने किया है और गुणादीनां नाल्यन्तबाधः’’ इस सूत्र के आशय से मिलाया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि वैसा अर्थ करने से प्रसंग में विरोध आता है, दूसरे यह कि इस ५६वें सूत्र को, जो कपिल मुनि के सिद्धांत पक्ष में रखकर गुणों का बाध, अवाध दोनों ही माने हैं वह भी ठीक नहीं क्योंकि ‘‘न तादृक् प्रदार्थाप्रतीतेः’’, इन दोनों धर्मो वाला कोई पदार्थ संसार में नहीं दीखता, तो क्या आचार्य भी विज्ञानभिक्षु के समान ज्ञान-रहित थे, जो अपने पूर्वापर कथन को ध्यान में न रखकर गुणों को सत् और असत् दोनों रूपों में कहते। यहां तक वेदों की उत्पत्ति और नित्यता को सिद्ध कर चुके। अब शब्द के सम्बन्ध में विचार करते हैं।