सूत्र :न यज्ञादेः स्वरूपतो धर्मत्वं वैशिष्ट्यात् II5/42
सूत्र संख्या :42
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वेद के अर्थ को जो अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से न जाना जाए) कहा सौ सत्य नहीं। वेद से जो इत्यादि किये जाते हैं, और इन यज्ञादिकों में जो-जो काम किये जाते हैं, वे सब स्वरूप से ही थर्म है, क्योंकि उन यज्ञादि कों का फल प्रत्यक्ष में दीखता है, जैसे-‘‘यज्ञाद् भवति पर्जंन्यः पर्जंन्यादन्सम्भवः’’। यज्ञ से मेघ होता है, और मेघ होने से अन्य उत्पन्न होता है इत्यादि वाक्य गीता में मिलते हैं ।
प्रश्न- जबकि वेद अपौरूषमेय है तब उनका अर्थ कैसे ज्ञात होता है?