सूत्र :त्रिभिः सम्बन्धसिद्धिः II5/38
सूत्र संख्या :38
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पहिले कहे हुए सम्बन्ध की सिद्धि तीन तरह से होती है- एक तो आप्त के उपदेश से दूसरे वृद्धों के व्यवहार से, तीसरे संसार में जो प्रसिद्ध बर्ताव में आने वाले पद हैं, उनके देखने से। इन ही तीन तरह के शब्द का वाच्य-वाचकभाव होता है। उसको इस तरह समझना चाहिये कि आप्तों के द्वारा ऐसे शब्दों का ज्ञान होता है, जैसे ईश्वर निराकार सत्-चित् आनन्दस्वरूप है। जब ईश्वर शब्द कहा जावेगा, तब पूर्वोंक्त विशेषण वाले पदार्थ का ज्ञान होगा और वृद्धों के व्यवहार से मालूम होता है कि जिसके सास्ना (गौ के कन्धों के नीचे जो लम्बी-सी खाल लटकती है) और लांगूल (पूँछ) होती है, उसको र्गा कहते हैं। ऐसा ज्ञान हो जाने पर जब-जब गौ शब्द का उच्चारण होगा, तब-तब उसी अर्थ का ज्ञान हो जाएगा और प्रसिद्ध शब्दों का व्यावहार इस तरह है, कि जैसे कपित्थ एक वृक्ष का नाम है, वह क्यों कपित्य शब्द से प्रतिद्ध है? इस प्रकार का तर्क न करना चाहिए, क्योंकि लोक प्रसिद्ध होने के कारण कपत्थि शब्द कहने से कपित्थ (कैथ) का ही ग्रहण होता है।