सूत्र :आधेयशक्तिसिद्धौ निज-शक्तियोगः समानन्यायात् II5/36
सूत्र संख्या :36
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : समान न्याय अर्थात् बराबर युक्ति होने से जैसे कि आधेय-शक्ति की सिद्धि होती है, वैसे ही निज शक्ति योग की, यह आयार्यों का मत भी सत्य है। दोनों में से कोई भी युक्तिहीन नहीं मानते हैं। यह व्याप्ति का झगड़ा केवल इसी वास्ते उत्पन्न किया गया था कि बुण आदि स्वरूप से नाशवान् नहीं हैं। इस पक्ष् की पुष्टि करने के वास्ते आचार्य को अनूमान प्रमाण की आवश्यकता हुई और वह अनुमान प्रमाण पंचावयव के बिना नहीं हो सकता था, इस वास्ते उसको लिखना पड़ा। इसी निश्चय में पंचावमव केक अन्तर्गत एक साहचर्यं नियम जिसता दूसरा नाम व्यप्ति आन पड़ा उसका प्रकाश करने के वास्ते यह कहकर अपने पक्ष को पुष्ट कर लिया। अब इससे आगे पंचावयव रूप शब्द को ज्ञान की अत्पत्ति में हेतु सिद्ध करने के वास्ते शब्द की शक्तियों का प्रकाश करके उस शब्द-प्रमाण में बाधा डालने वालों के मत का खण्डन करते हैं।