सूत्र :नित्यमुक्तत्वम् II1/162
सूत्र संख्या :162
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि पुरूष को नित्यमुक्त मानें, तो मुक्ति का साधन करना व्यर्थ होता है, मुक्ति प्रतिपादक जो श्रुतियां हैं उनमें भी दोषारोपन होगा, और इस सूत्र के अर्थ में जो विज्ञान भिक्षु ने (नित्य-मुक्तत्वम्) यह पुरूष को विशेषण दिया है, अर्थात् पुरूष को नित्य मुक्त माना है। यह कथन इस कारण अयोग्य है, कि ‘‘इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः’’ इस सूत्र से पुरूष का अनित्य मुक्त कपिलाचार्य ने माना है। इससे यहां विरोध होगा। उन टीकाकारों ने यह सोचा क्या उन ऋषियों की बुद्धि मनुष्यों की बुद्धि की तरह क्षणिक होती है, कि कभी कुछ कहें कभी कुछ कहें, जबकि उक्त सूत्र ‘‘इदानीमित्यादि’’ से पुरूष को अनित्य मुक्त प्रतिपादन कर चुके, फिर नित्य-मुक्त कैसे कह सकते हैं और पूर्वोक्त टीकाकार के कथन में इस कारण से भी अयोग्यता है कि जो दोष कपिलाचार्य को अपने कहे हुए विशेषणों से दीखे, उनके दुरूस्त करने के लिए ‘‘साक्षात् संबंधात् साक्षित्वम्’’ यह सूत्र फिर कहा, इसी प्रकार ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्वम्’’यह दो तरह के दो दोष आवेंगे उनका समाधान इस अध्याय के अन्तिम से सिद्ध कर दिया गया है। इस ही कारण ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्र्चेति,’’ यह दोनों सूत्र दोष के दिखाने वाले हैं।