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सांख्य दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : सांख्य दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :विमुक्तमोक्षार्थं स्वार्थं वा प्रधानस्य II2/1
सूत्र संख्या :1

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : शास्त्र का तो विषय निरूपण कर चुके, अब पुरूष का अपरिणामित्व ठहराने वास्ते प्रकृति से सृष्टि का होना विस्तार से द्वितीय अध्याय में कहेंगे और इस दूसरे अध्याय में प्रधान के जो कार्य हैं उनके स्वरूप को भी विस्तार से कहना है, क्योंकि प्रकृति के कार्यों से पुरूष का ज्ञान अच्छी तरह से होता है। कारण यह है कि प्रकृति के कार्यों के बिना ज्ञान हुए मुक्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती, अर्थात् जब तक पुरूष, प्रकृति और प्रकृति के कार्य, इन तीनों का अच्छी तरह ज्ञान नहहीं हो सकता तब तक मुक्ति भी न होगी, किन्तु उनके जानने ही से मुक्ति होती है। प्रश्न- अपरिणामित्व किसको कहते हैं? उत्तर- जो परिणाम को प्राप्त न हो। यदि अचेतन प्रकृति निष्प्रयोजन सृष्टि को अत्पन्न करती है, तो मुक्त को बन्ध की प्राप्ति हो सकती है। इस आशय को विचार करके सृष्टि के उत्पन्न होने का प्रयोजन इस सूत्र में कहते हैं। अर्थ- पुरूष में जो अहंकार के सम्बन्ध से दुःख मालूम पड़ता है, उसकी मुक्ति के वास्ते अथवा स्वार्थ अर्थात् पुरूष के सम्बन्ध से जो मन आदि को दुःख होते हैं, उनके दूर करने के लिए प्रधान अर्थात् प्रकृति का कर्तृत्व है और इस सूत्र में कर्तृत्व शब्द पहिले सूत्र से लाया गया है। प्रश्न- यदि मोक्ष के वास्ते ही सृष्टि होती है, तो एक बार की ही सृष्टि से सब पुरूषों को मोक्ष हो जाता, बारम्बार सृष्टि के होने का क्या कारण है?