सूत्र :न श्रवणमात्रात्तत्सिद्धिरनादिवासनाया बलवत्त्वात् II2/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : मुक्ति श्रवणमात्र से भी हो सकती। यद्यपि श्रवण भी बहुत जन्मों के पुण्यों में होता है तथापि श्रवणमात्र से वैराग्य की सिद्धि भी नहीं होती है, किंतु विवेक के साक्षात्कार से मुक्ति होती है और साक्षात्कार शीघ्र नहीं होता। अनादि मिथ्यावासना के बलवान होने से और उस वासना के रहते हुए पुरूष मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु योग से जो विवेक साक्षात्कार होता है, उसके द्वारा मुक्त होता है और इस योग में सैकड़ों विघ्न पैदा हो जाते हैं। इस कारण यह योग भी बहुत जन्मों में सिद्ध होता हैं इस कारण जन्मान्तर में वैराग्य को प्राप्त होकर किसी समय में कोई-कोई पुरूष मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु सब मोक्ष को नहीं प्राप्त होते।
प्रश्न- सृष्टि का प्रवाह (जन्म, मरण आदि) किस तरह चल रहा है?