सूत्र :बहुभृत्यवद्वा प्रत्येकम् II2/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे एक गृहस्थ से सैकड़ों नौकर बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरूष आदि का त्रम से भरण-पोषण होता है, इसी प्रकार प्रकृति के सत्वादि गुण प्रत्येक सैकड़ों पुरूषों को त्रम से मुक्त कर देते हैं, इस वास्ते कोई काई मुक्त हो भी जाते हैं, लेकिन और जो बाकी मनुष्य हैं उनकी मुक्ति के वास्ते सृष्टिप्रवाह की आवश्यकता है, क्योंकि पुरूष अनन्त हैं।
प्रश्न- प्रकृति सृष्टि की कारण है, इसमें क्या हेतु है? क्योंकि पुरूष को ही कारण सब मानते हैं?